‘भगवतीगीता’

दसों दिशाएँ हुईं प्रकाशित, वायु बहने लगी सुगंधित
जन्मी कन्या दिव्यस्वरूपा, पिता हिमालय मैना माता
फल पाया यह घोर तपस का, तेजस करोड़ों सूर्य समान सा
अष्टभुजाएँ, त्रिनेत्र, विशालाक्षी, मस्तक अर्धचंद्रमा धात्री
देख विराट स्वरूप विलक्षण, पूछने लगे परिचय गिरिवर।
नित्या प्रकृति परमेश्वरी शक्ति, संचालन सृष्टि की करती
बुद्धि, प्राण, मन रहित अहंकार से, भिन्न इंद्रियों से  शुद्ध आत्म मैं ही
शाश्वत ज्ञान ऐश्वर्य की मूर्ति, पराशक्ति नित्यानन्दमयी।
कृपाकर कह दें ब्रह्मज्ञान भवानी, कहने लगे गिरिराज-महारानी।
मुझसे रखें संबंध शाश्वत, साधना-भक्ति, चित्त मेरे अनुरक्त
ज्ञान से मुक्ति, भक्ति से ज्ञान, धर्म से भक्ति उदय है होती
काम-क्रोध, विकार त्याग हिंसा का, तब आत्मानुभूति होती
राग-द्वेष संताप का कारण, विषय-वासना सुख सब हैं स्वप्न
सारे कर्म देह भोग के, देह-पुरुष (जीवात्मा) हैं भिन्न लोक के
आयु क्षणभंगुर प्राणधारण में, जैसे सर्प ग्रसे मंडूक क्षणभर में
पाने हेतु चित्तानंदस्वरूपा, ध्यान धरो निर्मल, निर्गुण, ज्योतिस्वरूपा
ब्रह्मरूप जगत की सृष्टि करती, विष्णु बन विश्व पालन हूँ करती
महारुद्र बन दुष्ट दलन हूँ करती, लेकर राम आदि रूपों में दानव का संहारण करती
छोड़ दुष्टता अनन्यभाव से, जो भी क्षमायाचना करता
पापमुक्त कर क्षणभर में, भवसागर से तारण करती
हे नगश्रेष्ठ! स्त्री-पुरुष दो भेद हैं मेरे,
शिव की शक्ति ‘परात्पर’ तत्व हैं मेरे।
सुन उपदेश धन्य हुए श्रीपिता-माता,
आद्यशक्ति की दिव्यवाणी  कहलाती ‘भगवतीगीता’।

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